
28 मई 2025, जब मैं हरिद्वार में हर की पौड़ी पर पहुँचा, तो मन श्रद्धा से भर उठा। गंगा मैया की निर्मल धारा को देखकर कुछ क्षणों के लिए आत्मा को शांति मिली। परंतु यह शांति ज़्यादा देर तक टिक नहीं सकी, क्योंकि कुछ ही पलों में मेरी नज़र घाट पर फैली गंदगी पर पड़ी — और मन क्षोभ से भर उठा।हर तरफ बिखरे थे पुराने कपड़े, फटे जूते-चप्पल, प्लास्टिक की थैलियाँ, चिप्स के पैकेट, पानी की बोतलें और खाने-पीने के अन्य अवशेष। ऐसा लग रहा था जैसे लोग अपने पाप नहीं, बल्कि कचरा धोने के लिए गंगा में उतर आए हों। एक ओर गंगा आरती का दिव्य स्वर गूंज रहा था, वहीं दूसरी ओर श्रद्धालुओं के बीच पिकनिक का माहौल था — हँसी-मज़ाक, सेल्फियाँ, तेज़ आवाज़ में गाने और शोरगुल।जिस स्थान को हमारे पुरखों ने तप, त्याग और आस्था का केंद्र माना, उसी स्थान पर आज कुछ लोग बिना किसी मर्यादा के मनोरंजन करते दिखे। हर की पौड़ी अब तीर्थ कम और पर्यटन स्थल अधिक लगने लगा है।गंगा को हम माँ कहते हैं, लेकिन क्या कोई अपनी माँ के आँचल में ऐसा व्यवहार करता है? शायद नहीं। लेकिन हमारी कथनी और करनी में फर्क साफ दिखाई देता है। सरकार चाहे जितने भी स्वच्छता अभियान चलाए, जब तक आम नागरिक अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेगा, तब तक गंगा की पवित्रता केवल भाषणों तक ही सीमित रह जाएगी।गंगा केवल एक नदी नहीं, हमारी संस्कृति की जीवनधारा है। यदि हम उसे ही गंदा कर देंगे, तो फिर किस पर गर्व करेंगे? गंगा को हम माँ मानते हैं, लेकिन व्यवहार ऐसा करते हैं जैसे वह कोई सार्वजनिक कचरा घर हो। आस्था का यह अपमान देखकर आत्मा दुखी हो गई। क्या हमारी संस्कृति सिर्फ नाम मात्र की रह गई है? क्या तीर्थ यात्रा केवल सोशल मीडिया पोस्ट तक सीमित हो गई है ? सरकार ने #’नमामि गंगे’ और #’स्वच्छ भारत’ जैसे कई अभियान शुरू किए हैं, घाटों की साफ-सफाई के लिए काम कर रही है, लेकिन जब तक जनता की सोच नहीं बदलेगी, तब तक कोई भी योजना सफल नहीं हो सकती।
निष्कर्ष: गंगा हमें जीवन देती है, संस्कार देती है, पहचान देती है। उसे गंदा करना स्वयं को गंदा करना है। अगर हम सच में धर्म और आस्था का सम्मान करते हैं, तो गंगा और उसके घाटों की पवित्रता बनाए रखना हमारी नैतिक और सामाजिक ज़िम्मेदारी है।